कहाँ हैं अब राजनारायण जैसे जुझारू समाजवादी नेता?
गिरीश पंकज
देश आज़ाद हो चुका था मगर देश के अनेक शहरों में अंगरेज़ों की मूर्तियाँ हम सबको चिढ़ाते खड़ी थी. महान समाजवादी नेता लोहिया इसे कैसे बर्दाश्त करते। आदि के इतने सालों तक अंग्रेजों की मूर्तियाँ खड़ी रहीं, यह कितने शर्म की बात है. डॉ. लोहिया इस बात का विरोध करते रहते थे. आखिरकार उनके आह्वान पर 1965 में अंग्रेजो की मूर्तियों को तोड़ने का पुनीत काम शुरू हुआ. इस काम में बढ़-चढ़ कर भाग लेने वाले एक शख्स का नाम था राजनारायण। 1965 में दिल्ली में लार्ड एडवर्ड की मूर्ति तोड़ने के लिए समाजवादी एकत्र हो गए. फना गोरखपुरी नामक समाजवादी चीनी-हथौड़ी ले कर ऊपर चढ़ गए और राजनारायण नीचे खड़े हो कर सहयोग करने लगे.रस्सी का एक सिरा मूर्ति से बांधा गया, दूसरा छोर राजनारायण ने अपनी कमर से बाँध लिया। जब लगा कि अब मूर्ति टूट सकती है तो उन्होंने दौड़ लगाई। कमर में रस्सी बंधी हुई थी. बस, मूर्ति टूट कर नीचे गिर गई. साम्राज्यवाद के एक प्रतीक का पतन देख कर राजनारायण समेत बाकी समाजवादी प्रसन्न हो गए. हालाँकि इस कार्य को करते हुए पुलिस के डंडे भी बरसे लेकिन राजनारायण ने परवाह नहीं की. और एडवर्ड की मूर्ति को धूल चटा कर ही दम लिया। बनारस में भी उन्होंने रानी विक्टोरिया की मूर्ति को ध्वस्त किया था.
तो ऐसे साम्राज्यविरोधी थे राजनारायण।
'लोकबंधु' की उपाधि से मशहूर रहे अपने समय के जुझारू नेता राजनारायण का जन्मशताब्दी-वर्ष शुरू हो रहा है। बनारस जिले के एक छोटे-से गाँव मोतीकोट गंगापुर में 1917 को एक भूमिहार ब्राह्मण परिवार में जन्मा एक बालक भविष्य में देश की राजनीति की दिशा तय करने वाला महानायक बन कर कर उभरेगा, ऐसा किसी ने नहीं सोचा था। लेकिन होनहार बिरवान कहीं भी विकसित हो सकते हैं। फिर बनारस की धरती, वहाँ का पानी ही कुछ ऐसा है कि महापुरुषत्व हासिल करने में देर नहीं लगती। बनारस की धरती का संस्पर्श मात्र ने जीवन की सार्थकता को बोध होने लगता है। राजनारायण जी ने गंगा के तट पर पहलवानी की और आजादी की लड़ाई में अंगरेज़ो के विरुद्ध भी अपने अनेक दाँव पेंच दिखाते रहे। वे अनेक बार जेल भी गए। एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भी हम उनका पुण्य स्मरण करते हैं। राजनारायण जी को हम आजादी के पहले के राजनारायण और आजादी के बाद के राजनारायण के रूप में देखें तो हमें सोचना पड़ता है कि समाजवाद के इस नायक का जन्म संघर्ष के लिए ही हुआ था क्या? ऐसे समय में जब राजनीति में अभिजात्य किस्म के लोगों का वर्चस्व था, तब एक ठेठ देहातीपन का ठाट लेकर उभरने वाले नेता को तवज्जो कौन देता? मगर डॉ. राममनोहर लोहिया जैसे नेताओं ने राजनारायण को पहचाना था। आम लोगों ने भी उनके महत्व को समझा था, यही कारण है कि आजादी के दो दशक बाद ही वे जुझारू योद्धा के रूप में एक बार फिर सबके सामने उभरते हैं। तब जब 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी के विरुद्ध रायबरेली राजनारायण ने चुनाव लडऩे की सहमति दी और इतिहास का नया अध्याय ही रच डाला। उस दौर के अनेक बड़े-बड़े नेता - जैसे चंद्रशेखर और चंद्रभानु गुप्त आदि इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लडऩे से इंकार कर चुके थे। कारण कुछ भी रहा हो। उस वक्त इंदिरा एक शक्ति थी। नेहरू की पुत्री के रूप में उनकी ख्याति तो थी ही, एक दबंग प्रधानमंत्री के रूप में भी उनकी लोकप्रियता थी। उनसे लडऩे का मतलब ही था पराजय लेकिन राजनीति में वीरों की कमी नहीं रही है। गढ़ों को भदने के लिए अंतत: कोई अभिमन्यु ही सामने आता है। राजनारायण हिम्मत के साथ चुनाव लड़े मगर परिणाम जब आया तो वे पराजित घोषित कर दिए गए। लेकिन किसी शाइर ने कहा है ''हारने का अर्थ यह भी जानिए, जीत की संभावनाएँ साथ हैं''। राजनारायण हारे नहीं। उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में रायबरेली चुनाव को चुनौती दी और कहा कि ''चुनाव में कदाचरण हुआ है। धांधली हुई है''। मुकदमा चला, प्रमाण दिए गए और अंतत: राजनारायण की विजय हुई. उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश जगमोहन जी ने इंदिरा जी के चुनाव को रद्द घोषित कर दिया। उन्हें छह साल के लिए चुनाव लडऩे के लिए भी अपात्र घोषित कर दिया। लेकिन इंदिरा गांधी की मती मारी गई और उन्होंने लोकतंत्र की पीठ पर छुरा भोकते हुए देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। एक तो राजनारायण ने उन्हें परेशान कर रखा था, दूसरी तरफ पूरे देश में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के कारण पूरे देश में कांग्रेस विरोधी वातावरण बन रहा था। कांग्रेस की छवि खराब हो रही थी। अपनी कुरसी बचाने के लिए इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाना और तमाम बड़े-छोटे नेताओं को गिरफ्तार करके जेल में ठूँसना ही सरल उपाय नजर आया। और हम सबने देखा कि इसी आपातकाल के कारण इंदिरा का पतन हुआ और जनता पार्टी के रूप में गैर कांग्रेसी गठबंधन ने देश की बागडोर संभाली और पहली बार दिल्ली में गैर कांग्रेसी सरकार काबिज हुई।
आपातकाल के बाद आम चुनाव हुए उसमें कांग्रेस का पतन हुआ। उसका सूपड़ा ही साफ हो गया। रायबरेली से इंदिरा पराजित हुई और राजनारायण ने जीत का इतिहास रच कर भारतीय राजनीति के इतिहास में अपना अमर स्थान बना लिया। जनता पार्टी की सरकार बिना राजनारायण के अधूरी रहती। इसलिए उनको स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया। शायद इसीलिए स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया कि वे उस वक्त साठ साल होने के बावजूद तंदरुस्त थे । उनका कसरती बदन अलग से नजर आता था। माथे पर बंधी हरी पट्टी तो उनकी एक तरह से पहचान ही बन गई थी। उनके खान-पान के किस्से, उनके मनो-विनोद की अनेक खबरें अखबारों में प्रकाशित होने लगी थी। वे कार्टूनिस्टों के एक प्रिय चरित्र भी वे बन गए थे। लेकिन राजनारायण अपने ऊपर बने कार्टूनों से नाराज नहीं होते थे, वरन उसका मज़ा ही लेते थे। अपने कार्यकाल में उन्होंने देश की स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करने की दिशा में अनेक महत्वपूर्ण निर्णय किए थे। उन्होंने परिवार नियोजन का नाम बदल कर परिवार कल्याण कर दिया था। यह एक सकारात्मक सोच थी। आपातकाल के दौरान परिवार नियोजन को लेकर देश के लोगों पर अत्याचार किए गए थे। उनका राजनारायण जी को अहसास था। हम इसे देश का दुर्भाग्य ही कहें जनता पार्टी की सरकार अधिक चली नहीं। जेपी को सपना, देश के लोगों को सपना बहुत जल्दी छिन्न-भिन्न हो गया। जनता पार्टी में टूट-फूट हो गई। राजनारायण के प्रयासों से ही मोरारजी देसाई के बाद चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने। ये और बात है किं सिद्धांत की राजनीति करने वाले राजनारायण बाद में चौधरी चरण सिंह से न केवल अलग हुए वरन अपना दल भी बना लिया।
राजनारायण जी से मिलने का एक अवसर मुझे रायपुर में मिला था। तब मैंने अपनी पत्रकारिता की यात्रा शुरू ही की थी। युगधर्म नामक अखबार में उप संपादक था। गांधी चौक में राजनारयण जी की आमसभा का आयोजन था। राजनारायण भाषण दे रहे थे और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को अपनी ही शैली में भला-बुरा कह रहे थे। सभा में संघ के अनेक लोग खड़े थे। उनको बुरा लगा और वे राजनारायण मुर्दाबाद के नारे लगाने लगे। मैं नारे लगाने वालों के पास ही खड़ा था। धीरे-धीरे पथराव की भी नौबत आई और अंतत: सभा भंग हो गई। उस समय मैंने राजनारायण के तेवर निकट से देखे और सुने। राजनारायण जब संघ की निंदा कर रहे थे तो उनके खिलाफ नारे लग रहे थे। गुस्साई भीड़ धीरे-धीरे मंच की तरफ बढऩे लगी तो राजनारायण के समर्थक भी खड़े हो गए, तो उन्होंने माइक से आवाज लगाई -''चिंता मत करो। इन्हें आने दो। ऐसे लोगों से मुझे निबटना आता है।'' खैर इसके बाद तो आम सभा ही नहीं हो पाई। राजनारायण सभा खत्म करके लौट गए। बाद में पत्रकारों से उनकी चर्चा हुई तो उन्होंने वहाँ भी कहा कि देश में समाजवाद ही एक रास्ता है।'' बस, उस समय का इतना ही मुझे याद है.
गैर कांग्रेसवाद को पुष्पित -पल्लवित नायको में एक राजनारायण के बारे में जब देखता-सुनता और कहीं पढ़ता हूँ तो सोचता हूँ कि आज देश में ऐसे महान जुझारू नेता नज़र क्यों नहीं आते? समाजवाद का नाम लेकर अब मसखरे और पूंजीवादी लोग राज कर रहे है, जबकि राजनीति में लम्बी पारी खेलने वाले राजनारायण के पास अपना खुद का मकान नहीं था. पारम्परिक घर को छोड़ दे तो। राजनारायण ऐसे नेता थे जो आज़ादी की लड़ाई में जितनी बार जेल नहीं गए,उससे की गुना बार आज़ाद भारत में जेल गए. किसान-मजदूर की लड़ाई वे लड़ते ही रहे. उनमें कबीर का फक्क्ड़पन था. अन्याय के विरुद्द घर फूंक कर लड़ने की ताकत थी. कबीर कहते थे जो घर फूंके अपना चले हमारे साथ. राजनारायण उसी सोच के थे , आज के समाजवादीनेताओं की तरह नहीं कि जो घर भर ले अपना चले हमारे साथ. राजनारायण अहर्निश अन्याय के खिलाफ खड़े रहते थे.संघर्ष उनके स्वभाव में था. इसीलिए लोकबन्धु को याद करते हुए उनके जन्मदिन को ''संघर्ष दिवस'' के रूप में मनाया जाता है.उन्होंने दलितों के लिए भी किया। बनारस में बाबा विश्वनाथ मंदिर में दलितों का प्रवेश निषेध था. इस पागलपन के खिलाफ राजनारायण ने १९५६ में जोरदार आंदोलन छेड़ा था. यही कारण है कि समाज वंचित वर्ग उन्हें अपना नेता मानता था.लोग उन्हें आदर- प्यार से '' नेताजी'' भी कहते थे.
राजनारायण जी का निधन 1986 में हुआ था. उनको गए तीस साल हो गए हैं. आज भी उनकी कमी खलती है. एक बार अन्ना हजारे ने कहीं बिलकुल सही कहा था कि आज अगर राजनारायण जी होते तो उनका आंदोलन और गतिशील होता। राजनारायण होते तो देश की राजनीति को वैसा ग्रहण नहीं लगता, जैसा हम देख रहे हैं. राजनारायण के पीछे-पीछे चलने वाले या उनसे बहुत कुछ सीखने वाले अनेक समाजवादी आज समाजवाद की ओर पीठ कर के खड़े हैं.वे समाजवाद का नाम तो लेते है, लोहिया और राजनारायण को याद भी ,मगर आचरण में समाजवाद नज़र नहीं आता। ऐसे में राजनारायण जी याद आती है और दुःख होता है कि लोकबन्धु राजनारायण जैसे भारतीय राजनीति के चमकदार चेहरे क्यों भुलाए जा रहे हैं, क्यों उनके जैसा कोई नेता उभर कर सामने नहीं आ रहा है? जन्म शताब्दी के दौरान राजनारायण से सम्बंधित साहित्य का पुनर्प्रकाशन होना चाहिए। उन पर योजनाबद्ध तरीके से देश भर में आयोजन किया जाना चाहिए। और यह काम समाजवादी ही करे। भाजपा सरकार को जो करना है, वो करे मगर समाजवादी लोग अलग से कार्यक्रम करे. परिचर्चा करे और देश के विद्वानो को बुला कर समाजवाद की दिशा पर एक बार फिर गंभीर विमर्श की शुरुआत कर दें। आज फिर देश को लोहिया और राजनारायण के आंदोलनो की जरूरत है.तब शायद राजनारायण जी की आत्मा को भी सुकून मिलेगा। लोकबन्धु राजनारायण पीठ को मेरी शुभकामनाऍ और धन्यवाद कि उन्होंने राजनारायण जी की शताब्दी को धूमधाम से मनाने का संकल्प किया है.. इससे देश में एक वातावरण बनेगा और नयी पीढ़ी को भी पता चलेगा की उनके देश में राजनारायण नामका एक अलबेला और जुझारू समाजवादी नेता हुआ था.
गिरीश पंकज
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*पूर्व सदस्य, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली (2008-2012)*
6 उपन्यास, 14 व्यंग्य संग्रह सहित 44 पुस्तके
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*पूर्व सदस्य, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली (2008-2012)*
6 उपन्यास, 14 व्यंग्य संग्रह सहित 44 पुस्तके
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