Monday, 21 January 2013

समाजवादी महानायक राजनारायण

समाजवादी महानायक राजनारायण



।।प्रोफेसर आनंद कुमार।।
समाजशास्त्री, जेएनयू
भारतीय राजनीति में कुछ ऐसे जननायक हुए हैं, जिनके हिस्से में संघर्ष की धारावाहिकता का सिलसिला रहा है. इन नेताओं ने भारतीय लोकतंत्र के आधार को मजबूत करने के लिए सत्ता से ज्यादा सत्याग्रह को महत्व दिया. मध्यमवर्ग की तुलना में जनसाधारण, विशेषकर किसानों, मजदूरों, विद्यार्थियों और युवजनों के संगठनों को प्राथमिकता दी.
आजादी के लिए चलाये गये समझौतावाद की बजाय कुछ ठोस सिद्धांतों के लिए संघर्ष का जोखिम उठाया. लोकशक्ति की साधना में अपने व्यक्तिगत स्वार्थो, परिवाररहित और दल के महत्व को भी बार-बार विसर्जित किया. स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता लोकबंधु राज नारायण का नाम ऐसी नेतृत्व परंपरा की पहली कतार में 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से शुरू होकर आपातकाल विरोधी जन प्रतिरोध तक देश का मार्गदर्शन करता रहा है.
यह विडंबना की बात है कि लोकशक्ति के इस महासाधक को आज कबीर की तरह कोई अपना पुरखा बताने की जिम्मेदारी लेने के लिए आगे नहीं आता है. वाराणसी के एक संपन्न सामंती परिवार में जन्मे राज नारायण को राष्ट्रीय आकलन की समाजवादी धारा के प्रति लगाव विद्यार्थी जीवन में ही हो गया था. वह काशी विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र और कानून की पढ़ाई करके 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में कूद पड़े थे.
लेकिन उनका वास्तविक गुरुकुल काशी विद्यापीठ था. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में काशी विश्वविद्यालय की तुलना में काशी विद्यापीठ के ज्यादा अध्यापक गिरफ्तार हुए थे. इनमें से आचार्य नरेंद्र देव और डॉ संपूर्णानंद का तेजस्वी छात्र नेता राज नारायण पर कारागर जीवन के दौरान गहरा सैद्धांतिक प्रभाव पड़ा. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बनारस से लेकर बलिया, बक्सर, पटना, मुजफ्फपुर और रीवा तथा ग्वालियर तक चौतरफा विद्यार्थियों ने अंग्रेजी राज के छक्के छुड़ा दिये. इसमें राज नारायण की छात्र नेता के रूप में भूमिका का सर्वत्र सम्मान हुआ. जेल से छूटने के बाद राज नरायणजी ने जेपी और लोहिया के नेतृत्व में संपन्न अगस्त क्रांति की विद्यार्थी जमात के नेता के रूप में सैकड़ों सहपाठियों को कांग्रेस समाजवादी दल से जोड़ा.
समाजवादियों द्वारा स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस से अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी बनाकर किसानों और मजदूरों के हितों के लिए संगठन और संघर्ष को प्राथमिकता देने पर राज नारायणजी भी किसान, मजदूर जमातों के बीच एक युवा समाजवादी के रूप में अपना पूरा समय देने लगे. उनकी भूमिका इतनी असरदार थी कि 1952 के पहले आमचुनाव में उन्होंने समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार के रूप में न सिर्फ कांग्रेस के एक बड़े नेता को पराजित किया, बल्कि उत्तर प्रदेश विधानसभा में सबसे कम उम्र में ही नेता विपक्ष चुने जाने का गौरव भी हासिल किया. जब समाजवादी पार्टी में आगे की दिशा को लेकर बड़े नेताओं में मतभेद पैदा हुआ, तो राज नारायण ने निसंकोच डॉ लोहिया की धारा के साथ अपने को जोड़ा. यह कहना अतिशियोक्ति नहीं होगी कि डॉ लोहिया के तेजस्वी विचारों और क्रांतिकारी कार्यक्रमों को अमलीजामा पहनाने वालों में राज नारायणजी का नाम सबसे ज्यादा चमकता रहा. क्योंकि लोहिया दृष्टि के अनुकूल राज नारायण ने विधानसभा और जनसंघर्ष के बीच लगातार सक्रिय संबंध बनाने की जरूरत को शुरू किया.
क्योंकि आजादी के बाद की राजनीति में नेहरू का आकर्षक व्यक्तित्व और कांग्रेस पार्टी के जबरदस्त संगठन बल का चौतरफा बोलबाला था. इसलिए नेहरू के लिए अपने गृहराज्य उत्तर प्रदेश में समाजवादी राजनीति की अलग पहचान बनाना आसान काम नहीं था. लेकिन लोहिया के मार्गदर्शन में राज नारायणजी और उनके सहयोगी समाजवादी विधायकों ने विधानसभा के हर सत्र में किसानों के बड़े सवाल और जनसाधारण की बुनियादी जरूरतों के बारे में कांग्रेसी सरकार पर असरदार दबाव बनाया. इसके परिणामस्वरूप 1964 के आसपास मतदाताओं के सामने कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ का आह्वान करना पेश करना लोहियाजी के लिए एक सफल रणनीति के रूप में सफल हुआ. स्वयं लोहियाजी दो बार 1957 और 1962 आमचुनाव में हारने के बाद 1963 में लोकसभा के लिए चुनाव जीते और संसद को सड़क के सच को समझने के लिए तैयार कर सके.
राज नारायणजी के छह दशकों से ज्यादा लंबी समाजवादी जीवन यात्रा में कई अविस्मरणीय कार्य संपन्न हुए. लेकिन कम से कम पांच महत्वपूर्ण कार्यो के लिए राज नारायणजी का नाम न सिर्फ समाजवादी आंदोलन के इतिहास में ही नहीं, बल्कि 10वीं शताब्दी के भारतीय इतिहास में बार-बार याद किया जायेगा. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उनके योगदान की चर्चा की जा चुकी है. इसके बाद 1956 में राज नारायणजी समाजवादियों के सामाजिक समता की स्थापना विशेषकर छुआ-छूत उन्मूलन को बढ़ावा देने के लिए काशी विश्वनाथ में हरिजनों के मंदिर प्रवेश का मुद्दा उठाया. कांग्रेसी जमात सत्ता में आने के बाद गांधी के स्पृश्यता उन्मूलन के अभियान को भुला चुकी थी.
लेकिन समाजवादियों ने कुजात गांधीवादी के रूप में समाजिक न्याय के मसाल को संभाले रखा. काशी विश्वनाथ मंदिर में हरिजनों के प्रवेश पर लगे निषेध को तोड़ो का ऐलान किया. डॉ लोहिया ने इस सत्याग्रह का जिम्मा राज नारायण को सौंपा. एक बड़ी तादाद में दलितों और समाजवादियों का समूह मंदिर प्रवेश के लिए पुलिस और पंडों की लाठियों के प्रहार ङोलते हुए आगे बढ़ा और छुआ-छूत पर आधारित मंदिर प्रवेश निषेध का सफाया किया गया. इसमें राज नारायण को खुद गंभीर चोटे आयीं. लेकिन इस समाजवादी सत्याग्रह ने एक सामाजिक कलंक से काशी विश्वनाथ मंदिर को मुक्ति दिलायी.
इसी प्रकार राष्ट्रीय आंदोलन की भाषानीति संबंधी वायदे को जब आजादी के एक दशक के बाद भी पूरा करने में कांग्रेसी सरकार आनाकानी करती रही, तो समाजवादियों ने अंग्रेजी हटाओ, विदेशी गुलामी के चिह्न् मिटाओ का कार्यक्रम प्रस्तुत किया. इसके लिए डॉ लोहिया स्वयं बदनामी के शिकार बनाये गये. लेकिन राज नारायण ने अंग्रेजी हटाओ, भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाओ का अधूरा काम आगे बढ़ाने में डॉ लोहिया के सबसे सक्रिय सेनापति के रूप में सामने आये. वाराणसी के सार्वजनिक सभा स्थल में लगी अंग्रेजीराज की महरानी विक्टोरिया की मूर्ति को हटाने के लिए समाजवादियों का नेतृत्व राज नारायण ने किया. कांग्रेसी शासन की पुलिस ने विदेशी राज के इस अवशेष की रक्षा में स्वतंत्रता सेनानी राज नारायण समेत सैकड़ों समाजवादियों को आहत किया, फिर गिरफ्तार किया, मुकदमा चला और सजा दी.
लेकिन देश ने इस राष्ट्र सम्मान के कार्य को करने के लिए राज नारायण का सम्मान किया. इन सबकी तुलना में कहीं ज्यादा साहस का काम 1974 और 1977 के बीच में राज नारायण के नेतृत्व में लोक नायक जय प्रकाश नारायण द्वारा संचालित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में योगदान का रहा. इस आंदोलन में राज नारायण ने जय प्रकाश के सबसे अनुशासित सहयोगी जैसी भूमिका निभायी और अपना सबकुछ दांव पर लगाया. न सिर्फ जय प्रकाश के कंधे से कंधा मिलाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ जन जागरण किया, बल्कि इंदिरा गांधी द्वारा किये गये गलत कार्यो का कानूनी मोर्चे पर भी जबरदस्त भंडाफोड़ किया. इस दौर का इतिहास लिखने वाले यह मानते हैं कि जय प्रकाश के बाद अगर किसी नेता ने इंदिरा राज का रहस्यमय कामकाज का पर्दाफाश करने में सबसे बड़ा योगदान किया तो वह श्री राज नारायण जी थे. फिर राज नारायण जी को इंदिरा जी द्वारा समूचे आपातकाल के 19 महीने तक बिना मुकदमा चलाये नजर बंद रखना कहां अप्रत्याशित था. इसके बाद राज नारायण जी के राजनीतिक साहस का चरम बिंदु 1977 के आम चुनाव में सामने आया. देश आपातकाल के अंधेरे में था.
चारों तरफ सरकारी तंत्र का आतंक था. ऐसे में आम चुनाव की घोषणा हुई. अधिकांश समाजवादी नेता भी चुनाव लड़ने को बेकार समझ रहे थे. लेकिन आचार्य कृपलानी और जय प्रकाश नारायण ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए न सिर्फ चुनाव लड़ने का आह्वान किया, बल्कि सभी लोकतांत्रिक शक्तियों को एकजूट करने के लिए उस दौर की पार्टियों को एक नये दल के रूप में जनता को तानाशाही का विकल्प देने की भी जरूरत बतायी. इस प्रक्रिया में राज नारायण, जय प्रकाश और कृपलानी जी के सबसे प्रबल सहयोगी बने. लेकिन इससे भी आगे जाकर उन्होंने अपने को जनता पार्टी और जन तांत्रिक के रूप में सर्वशक्तिमान बन चुकी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के मुकाबले में चुनाव लड़ने के रूप में प्रस्तुत किया.
राज नारायण जी का यह साहस पूरे देश के लिए साहसी बनने और खुल कर तानाशाही ताकतों के खिलाफ चुनाव के मौके का उपयोग करने का जबरदस्त प्रेरणा सिद्ध हुआ. जिस काम के पीछे लोक शक्ति खड़ी हो जाये, उसे पूरा होने से कौन रोक सकता है. अपनी सैद्धांतिक समझदारी और लोकतांत्रिक निष्ठा के बल पर जनता की पंचायत में फरियाद सुनाने के लिए पहुंचे राज नारायण को जनता जनार्दन ने सही पाया, विजयी बनाया, इतिहास में एक साहसी जनसेवक और समाजवादी आंदोलन के महानायक के रूप में अमृत्व प्रदान किया.









 


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